पद्य खण्ड
(1) मीराबाई
(1) रचनाएं:-
(1) गीत गोविंद का टीका
(2) राग विहाग
(2) भाव पक्ष:-
मीरा के पदों के वाचन और गायन से संकेत मिलता है कि मीरा की भक्ति भावना अंतः करण से स्फुर्त है। उन्होंने मुक्त भाव से सभी भक्ति संप्रदायों से प्रभाव ग्रहण किया है। उनकी रचनाओं में माधुर्य समन्वित दांपत्य भाव है। मीरा का विरह पक्ष साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है।
उनके आराध्य तो सगुण साकार श्री कृष्ण है।
( 3) कला पक्ष:-
मीराबाई अधिकांश पद राजस्थानी भाषा में लिखे गए हैं, साथ ही ब्रजभाषा, गुजराती और खड़ी बोली से प्रभावित है। उन्होंने प्रायः मात्रिक छंदों का ही प्रयोग किया है। उनकी भक्ति में दैन्य तथा माधुर्य भाव की प्रधानता है। मीरा के पद गेय हैं। इनमें विभिन्न अलंकारों की छटा देखी जा सकती है।
(4) साहित्य में स्थान:-
भक्ति काल के स्वर्ण युग में मीराबाई के भक्ति भाव से संपन्न पद आज भी अलग ही जगमगाते दिखाई देते हैं।
(2) केशवदास
(1) रचनाएं:-
(1) रसिकप्रिया
(2) कविप्रिया
(3) रामचंद्रिका
(2) भाव पक्ष:-
केशवदास नीति- निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा बहुमुखी है। उनकी रचनाओं में उनके आचार्य, महाकवि और इतिहासकार का रूप दिखाई देता है। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिंदी में प्रचलित करने की चिंता हुई, जो जीवन के अंत तक बनी रही। इनके पहले भी रीति ग्रंथ लिखे गए किंतु और सर्वगीण ग्रंथ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किए।
(3) कला पक्ष:-
इनका कवि रूप इनकी प्रबंध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। संवादो के उपयुक्त विधान का इनमें विशिष्ट गुण है। मानवीय मनोभावों की इन्होंने सुंदर व्यंजना की है। उन्होंने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया। जैसे:-अनुप्रास, यमक और श्लेष अलंकारो के यह विशेष प्रेमी है। इनके श्लेष संस्कृत पदावली के हैं। अलंकार संबंधित इनकी कल्पना अद्भुत है।
(4) साहित्य में स्थान:-
केशवदास की कल्पना शक्ति संपन्न और काव्य भाषा में प्रवीण होने पर भी केशव पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके। हिंदी साहित्य में इनका नाम युगो- युगो तक अमर रहेगा।
(3) सूरदास
(1)रचनाएं:-
(1) सूरसागर
(2)सुर सारावली
(3)साहित्य लहरी।
(2) भाव पक्ष:-
सूर के काव्य में सभी रसों का सुंदर परीपाक हुआ है। वात्सल्य तथा श्रंगार के तो वे अद्वितीय कवि है। वे वात्सल्य का कोना- कोना झांक आए हैं।बालको के मन और हाव-भावो का जैसा सुंदर चित्रण सूर ने किया है, वैसा विश्व का कोई अन्य कवि नहीं कर सका।
(3) कला पक्ष:-
* सूर की भाषा में कमलकांत पदावली, सरलता और सरसत्ता के साथ-साथ प्रवाह भी है। उनकी भाषा ब्रज भाषा है।
* उन्होंने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा की तो वे झड़ी लगा देते हैं।
* वे राग रागिनीयों के ज्ञाता थे, उनके सभी पद गए हैं।
(4) साहित्य में स्थान:-
सूर भक्ति शाखा की सगुणधारा की कृष्ण-भक्ति शाखा के प्रमुख कवि है। सूर अष्ट कवियों में सिरमौर है। बाल- प्रकृति चित्रण एवं श्रंगार में सूर का स्थान आद्वितीय है। उनके विषय में ठीक ही कहा गया है-
"सूर सूर तुलसी ससि,उडुगन केशवदास।"
(4) गोपालसिंह नेपाली
(1)रचनाएं:-
(1) रागिनी
(2) कल्पना
(3) सावन
(2)भाव पक्ष:-
उनके काव्य में देशप्रेम और वीरता, मस्ती और स्फूर्ति, ओज और ऊर्जा का समन्वय हुआ है। उनकी कविता संघर्षों से जूझने की प्रेरणा देती है। उनका ओजस्वी स्वर सीधा हृदय को छूने की क्षमता रखता है।
(3)कला पक्ष:-
नेपालीजी की भाषा पाठकों और श्रोताओं को मस्ती से डुबोने की अद्भुत क्षमता रखती है। उनकी समर्थ और सशक्त भाषा ने उन्हें राष्ट्रीय भावधारा के क्षेत्र में प्रथम पंक्ति का अधिकार बनाया है। उनकी भाषा में जो प्रभाव व प्रवाह है, वह बहुत कम कवियों की रचनाओं में पाया जाता है।
(4) साहित्य में स्थान:-
श्री नेपालीजी प्रकृति सौंदर्य, प्रणय, ओज और ऊर्जा के सफल कवि तथा सफल गीतकार के रूप में हिंदी साहित्य में अपना स्थान हमेशा बनाए रखेंगे !
(5) घनानंद
(1) रचनाएं:-
(1) मीरा पदावली
(2) सुजान- विनोद
(3) कवित संग्रह
(2) भाव पक्ष:-
घनानंद ने सूजान का अपने पदों में इतनी तन्मयता से उल्लेख किया है कि उसका अध्यात्मिकरण हो गया है। सूजन का उनकी प्रेमी होना ही अधिक सिद्ध होता है।सूजान को श्रंगार पक्ष में नायक और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना उचित होगा। उनकी कविता में प्रेम और भक्ति का मिश्रण होता है।
(3) कला पक्ष:-
* आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने घनानंद को रीतिमुक्त काव्यधारा का श्रेष्ठ कवि कहा है।
* घनानंद के काव्य की भाषा मधुर, सरस ब्रज भाषा है।
* कवित और सवैया छंद अपनाते हुए अपने-अपने भाव की मधुर व्यंजना की है।
* घनानंद का विरह- वर्णन सूरदास के भ्रमरगीत के समक्ष है।
* उनकी भाषा फारसी काव्य से अनुप्राणित होते हुए भी मौलिक है।
(4) साहित्य में स्थान:-
घनानंद के काव्य में अलंकार भी स्वाभाविक रूप से आए हैं। वहीं अनुप्रास की छटा है, तो कहीं विरोधाभास अलंकार है। घनानंद की रचनाएं अत्यंत सरस एवं प्रौढ है।
(6) जगन्नाथदास रत्नाकर
(1)रचनाएं:-
(1) कलकाशी
(2) गंगा तथा विष्णु लहरी
(3) वीराष्टक
(2)भाव पक्ष:-
रत्नाकर द्वारा लिखे गए साहित्यिक ऐतिहासिक लेखो, मोलिक कृतियों की रचना और महत्वपूर्ण ग्रंथों के संपादन से उनके गंभीर अध्ययन,मौलिक प्रतिभा और सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का पता चलता है। उन्होंने 'साहित्य सुधा निधि'तथा 'सरस्वती'पत्रिकाओं का संपादन किया। रसिक मंडल, प्रयोग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व विकास में योगदान दिया।
(3) कला पक्ष:-
* 'रत्नाकर'की भक्ति का दार्शनिक आधार वल्लभ और चैतन्य की समन्वित विचारधारा है।
* वह राधाकृष्ण को उपास्य मानकर वैष्णव धर्म की उदारता लेकर चले हैं।
* वे सामाजिक कुरीतियों एवं धार्मिक रुढियो का उन्मूलन कर स्वस्थ परंपराओं का पूनरूद्वार करना चाहते हैं।
* रत्नाकर अपने कथात्मक, वर्णनात्मक एवं निबंधात्मक, प्रबंध और गेय, पाठ्यसूक्ति तथा प्रबंध मुक्ताक आदि शैलियों के सफल प्रयोग किए हैं।
(4)साहित्य में स्थान:-
रत्नाकर की कृतियां भक्ति, श्रंगार, वीर तथा नीति प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। वह भावना से रससिद्ध, अभिरुचि से अलंकारवादी और प्रवृति से समन्वयवादी है।
(7) कबीर दास
(1) रचनाएं:-
(1) बानी और बिजाक
(2) साखी
(3) सबद
(4) रमैनी।
(2) भाव पक्ष:-
कबीर की भाषा पूरवी जनपद की भाषा है। इसे साधुक्कड़ी भाषा भी कहा गया है। यद्यपि उन्होंने भाषा सौष्ठव की ओर ध्यान नहीं दिया तथापि उनकी भाषा सरस और सुबोध है। अध्यात्म का मर्म समझाने के लिए उन्होंने रूपक और प्रतीकों के साथ उलटबांसी का प्रयोग भी किया। उन्होंने माया का मानवीकरण कर उसे कंचन और कामिनी का पर्याय माना। उनका ईश्वर निर्विकार और अरूप है। उसे अवतार में प्रतिष्ठित न कर उन्होंने प्रतीकों में स्थापित किया। ब्रह्म को पति रूप मनाने पर आत्मा उसकी प्रेयसी बन जाती है। प्रियतम और प्रेयसी के इसी संबंध में जो दांपत्य प्रेम लक्षित है, वही कबीर का रहस्यवाद है।
(3) कला पक्ष:-
कबीर ने जाति, वर्ग एवं संप्रदायों की सीमाओं का अतिक्रमण कर ऐसे मानव धर्म और मानव समाज की स्थापना की जिसमें विभिन्न दृष्टिकोण रखने वाले विभिन्न मताग्रही भी नि:संकोच सम्मिलित हो सकते हैं। कबीर का निर्मल व्यक्तित्व और विद्वान दृष्टिकोण इतना व्यापक और प्रभावशाली था कि उनके विचारों के आधार पर एक संप्रदाय ही चल पड़ा। जिसे 'संत संप्रदाय' की संज्ञा मिली।
(4) साहित्य में स्थान:-
कबीर पहले संत है, बाद में उपदेशक और अंत में कवि। वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं। वे भक्ति काल की निर्गुण धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि है। कबीर का प्रभाव बहुत व्यापक है।
(8) बिहारीलाल
(1) रचनाएं:-
बिहारी द्वारा रचित एक ही काव्य ग्रंथ है 'सतसई'। इसमें 713 दोहे संकलित है। इसे प्राय: 'बिहारी सतसई' कहा जाता है।
(2) भाव पक्ष:-
बिहारी के प्रत्येक दोहे का विषय स्वतंत्र है।उन्होंने 'दृश्यजगत' और 'भावजगत' के बड़े जीते- जागते शब्द चित्र अंकित किए हैं।
* श्रंगार रस:-
बिहारी का मुख्य रस श्रंगार है।उनके काव्य में श्रृंगार रस के समस्त अंगों एवं तत्वों का सुंदर समावेश हुआ है। उनके काव्य में प्रमुखता संयोग श्रंगार की है,
* भक्ति भावना:-
बिहारी के भक्ति विषयक दोहों में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अनन्य आस्था अभिव्यक्त हुई है।अपने जीवन के समस्त सूत्र भगवान श्री कृष्ण के हाथों में सौंप कर वे निश्चित हो जाते हैं।
* नीति काव्य:-
बिहारी ने अपने अनेक दोहों में नीति विषयक जीवनपयोगी आदर्शों का उल्लेख किया है।
(3) कलापक्ष:-
रीतिकालीन प्रवृत्ति के अनुरूप बिहारी की काव्य कला प्रत्येक कसौटी पर प्रभावी और मूल्यवान प्रमाणित होती है।
* भाषा:-
बिहारी के काव्य की भाषा ब्रज है। उनकी भाषा अत्यंत परिमार्जित एवं व्याकरण सम्मत है। ब्रज के अतिरिक्त बिहारी की भाषा में संस्कृत, अवधि, बुंदेली, खड़ी बोली एवं अरबी- फारसी के शब्दों का भी आवश्यकता अनुसार प्रयोग हुआ है।
*अलंकार:-
जहां बिहारी ने यमक, श्लेष एवं अनुप्रास आदि शब्दालंकारों का जमकर प्रयोग किया है, वहीं दूसरी ओर अनेक दोहों में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अपहुति, अर्थान्तरन्यास, दृष्टांत, विभावना, अन्योक्ति एवं अतिशयोक्ति आदि अर्थालंकार के प्रयोग में भी वे किसी से पीछे नहीं है।
* छंद:-
बिहारी ने मुख्यतत: 'दोहा'छंद को ही अपनाया है। इस छोटे से सीमित मात्रा वाले छंद मे बिहारी ने भाव का इतना संघन समावेश किया है। कि वे विलक्षण बन गए हैं। 'सतसई' में कहीं-कहीं सोरठा छंद का भी प्रयोग हुआ है।
(4) साहित्य में स्थान:-
भाव पक्ष और कला पक्ष के सशक्त प्रयोग के रूप में कविवर बिहारी की रचना कौशल सचमुच अद्भुत है।वे अपने उत्कृष्ट वैभव के कारण रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
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